श्रद्धा और अभ्यास
संकल्प सिद्धि के लिए श्रद्धा का होना आवश्यक है। मनुष्य के निराश हृदय को सांत्वना, सहारा और प्रेरणा देने वाली वृत्ति श्रद्धा है। श्रद्धा से लक्ष्य प्राप्ति के प्रति दृढ़संकल्प का जन्म होता है। दृढ़संकल्प से आंतरिक शक्ति मिलती है, जो मनुष्य को अभ्यास के लिए अभिप्रेरित करती है।
- निरंतर अभ्यास लक्ष्य की प्राप्ति को संभव बनाता है। एकलव्य को जब गुरु द्रोणाचार्य ने शिक्षा देने से मना कर दिया, तब भी उसने अपने मन में श्रद्धा को जीवित रखा । उसने अपने संकल्प को अपनी लगन से, गुरु के बिना, लक्ष्य के प्रति प्रेम और निरंतर अभ्यास से सफलता में परिणत कर लिया।
- गीता भी यही कहती है, श्रद्धा नींव की ईंट के समान है। धर्म, कर्म और साधना की दीवारें श्रद्धा पर ही खड़ी होती हैं।’ जब मनुष्य लक्ष्य के प्रति प्रेम और उसी पर दृष्टि रखकर प्रयत्न में जुट जाता है, तब लक्ष्य स्वयं उसके चरण चूमता है।
- श्रद्धा का अवलंबन किसी बाहरी वस्तु के अवलंबन से ज्यादा श्रेष्ठ है, क्योंकि गुरु या प्रशिक्षक हमें दौड़ना तो सिखा सकते हैं, पर हमें जिता नहीं सकते। जीतने के लिए हममें जीतने के प्रति श्रद्धा और अभ्यास के प्रति लगन होनी चाहिए।
- वास्तव में एक सच्चे साधक को अपने साधना संसार में मुक्त होकर स्वयं के सामर्थ्य के साथ प्रवेश करना चाहिए, तभी वह उस संसार की ज्ञात सीमाओं से परे उसकी सीमाओं का विस्तार कर सकता है। वैसे हर साधक अपनी संपूर्ण क्षमता के साथ ही साधना संसार में प्रवेश करता है और उसके सत्य को जानकर अपने जीवन को सफल बनाता है। इसके बाद भी साधना के संसार का सत्य जानने को शेष रहता है।
- इसीलिए हर नए साधक के विकास और विस्तार की संभावना सदैव शेष रहती है। अपनी शेष संभावनाओं को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि सत्य संकल्प अर्थात सद्विचार पर अपने मन और बुद्धि को संपूर्ण श्रद्धा के साथ लगाए रखा जाए।