‘अग्नि’ का प्रयोग मानव आत्मिक अनुभूति करने, भोजन पचाने तथा शरीर की अशुद्धियां दूर करने में करता है। मानव शरीर की स्वाभाविक अग्नि जब सही दिशा में प्रज्वलित होती है, तब उसकी चेतना रूपी लौ का संचार भी मस्तिष्क में उसी तरह से होता है, जैसे अग्नि रूपी ऊर्जा की उष्मा का होता है। वास्तव में मानव चेतना मस्तिष्क को ऊर्जा उपलब्ध कराने के एक स्रोत के रूप में कार्य करती है। ऐसा तभी होता है जब शरीर की अग्नि इसे जागृत कर इसकी तरंगों को मस्तिष्क की गहराइयों में पहुंचाती है, जहां ज्ञान और शक्ति समाई रहती है।
शरीर में स्वाभाविक अग्नि का प्रज्वलन सही हो इसके लिए तपोबल बढ़ाना आवश्यक है। तपोबल साधना से बढ़ता है। इससे शरीर में प्रज्वलित ऊष्मा मानव चेतना को घेरने वाले नकारात्मक रूपी धुएं को हटा देती है। चेतना जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे ही मस्तिष्क में शक्ति का संचार प्रबल होता है। चेतना जागृत होने पर व्यक्तित्व में स्वतः परिवर्तन आता है, जो हमें विपरीत परिस्थितियों में भी नकारात्मकता से बचाकर रखता है।
जिस प्रकार अशुद्धियों और बुराइयों से लड़ने के लिए हवन और यज्ञ के रूप में अग्नि प्रज्वलित की जाती है। इसी प्रकार शारीरिक अशुद्धियों को दूर करने के लिए शरीर में जिस अग्नि का प्रज्वलन स्वाभाविक ढंग से किया जाता है, उसके अंतर्गत योग और से आध्यात्मिक क्रियाएं आती हैं। इस क्रिया से मनुष्य के मन-मस्तिष्क से नकारात्मक विचार बाहर आते हैं और उनकी जगह सकारात्मक विचार अपनी जगह बना लेते हैं।
इन्हीं सकारात्मक विचारों से समाज में फैली नकारात्मकता का अंत होता है और शक्ति की अनुभूति भी होती है। इसलिए मनुष्य को न सिर्फ अपने, अपितु बाहरी जगत के लिए भी उस चेतना को जगाने की आवश्यकता होती हैजिससे विश्व में शांति को स्थापित किया जा सके।